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संकीर्णता और पक्षपात
सारी मुश्किल इस बात से आती है कि तुम किसी के साथ तब तक सामञ्जस्य नहीं कर सकते जब तक कि वह तुम्हारे अपने विचारों के साथ सहमत न हो और उसकी राय और उसके काम करने का तरीका तुम्हारे तरीके से मेल न खाता हो ।
तुम्हें अपनी चेतना को विस्तृत करना चाहिये और यह समझना चाहिये कि हर एक का अपना ही सिद्धान्त होता है । व्यक्तिगत इच्छाओं के सुखद संयोजन में समझ और सामञ्जस्य की भूमि खोजना जरूरी है न कि यह कोशिश करना कि सभी की इच्छाएं और कर्म एक जैसे हों ।
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उत्तरोत्तर सामञ्जस्य की स्थापना में जो मुख्य बाधाएं हैं उनमें से एक है अपने विरोधी के आगे यह सिद्ध करने की आतुरता कि वह गलत है और हम ठीक हैं ।
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मैं आपकी नयी व्यवस्था से प्रसन्न हूं, आशा करता हूं कि वह चलेगी ।
यह इस पर निर्भर है कि हर एक अपनी इच्छा की विजय की अपेक्षा सामञ्जस्य की कितनी परवाह करता हे !
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तुम दूसरों से व्यवस्था बनाये रखने की आशा कैसे करते हो जब तुम स्वयं ऐसा नहीं करते ?
अगर तुम वस्तुओं को समझने में हमेशा एकतरफा बने रहो तो अपने छिछलेपन में से बाहर निकलने की आशा कैसे कर सकते हो ?
जून १९३१ *
२९५ "क'' जैसा सोचता और अनुभव करता है उसमें वह बिलकुल न्यायसंगत है लेकिन उसे समझना चाहिये कि दूसरे लोग भी जैसा वे सोचते और अनुभव करते हैं उसमें न्यायसंगत हैं, भले ही वे उसके साथ सहमत न हों । उसे उनसे धृणा न करनी चाहिये और न भला-बुरा कहना चाहिये ।
मनुष्यों में सबसे अधिक फैली हुई बीमारी है मानसिक संकीर्णता । लोग केवल वही समझते हैं जो उनकी अपनी चेतना में हो, वे किसी और चीज को नहीं सह सकते । २४ सितम्बर, १९५३
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जो व्यक्ति केवल अपनी ही राय को मानता है, अधिकाधिक संकीर्ण होता जाता हे ।
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हर समस्या के लिए एक ऐसा समाधान है जो हर एक को सन्तुष्ट कर सकता है लेकिन इस आदर्श समाधान को पाने के लिए हर एक को औरों के साथ मिलकर उन पर अपनी पसन्द लादने की इच्छा की बजाय उस समाधान को चाहना चाहिये ।
अपनी चेतना का विस्तार करो और सबकी सन्तुष्टि के लिए अभीप्सा करो । २८ अगस्त, १९७१
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तुम केवल प्रश्न के अपने पक्ष को देखते हो । अगर तुम अपनी चेतना को विस्तृत करना चाहो तो ज्यादा अच्छा होगा कि निष्पक्ष होकर सभी पहलुओं से देखो । बाद में तुम्हें पता चलेगा कि इस वृत्ति के बहुत लाभ हैं । १७ सितम्बर, १९७१
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जब तक कि तुम किसी के पक्ष में हो और किसी के विपक्ष में, तो निश्चित रूप से 'सत्य' तुम्हारी पहुंच से परे है ।
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